लोगों की राय

पारिवारिक >> सूरज ढकते काले मेघ

सूरज ढकते काले मेघ

सुधा मूर्ति

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :312
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1611
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

334 पाठक हैं

प्रस्तुत है सूरज ढलते काले मेघ...

Suraj Dhakte Kale Megh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कुन्ती

हमारा परिवार न तो दरिद्रता से परिचित था न इफरात से। हमारे पिता की नियमित निश्चित आय हमें सुखी रखने को पर्याप्त थी। हमारी मां को घर चलाने आता था। पति को राजी कर और कुछ छिपाकर बचाने की कला भी वह जानती थी। चादर के परदे, परदों के झाड़न और झाड़न का पोछा बनाकर वह चीजों का अधिकतम उपयोग कर लेती थी। बेटियों के ब्याह बेटों की पढ़ाई के नाम पर हर माह जमा करने की सलाह उसी ने पिता जी को दी थी। उसी के हाय-तौबा मचाने पर यह किस्तों पर अदा होने वाला घर भी मिला था।

लेकिन किस्तें अभी-अभी तो बड़ी मुश्किल से चुकता हुईं थीं। घर में सफेदी दुहराई भी नहीं गई थी। पुराने फर्नीचर बड़े बेमेल लगते थे। कम-से-कम एक नया सोफा सेट आ जाना चाहिए, इस पर काफी तर्क-वितर्क के बाद अम्मा और पापा राजी हुए थे। लेकिन बीच में ही भाई की साइकिल खरीदने की बात उठ गई तो सोफे की खरीदारी कुछ महीनों के लिए टाल दी गई। भाई का कॉलेज हमारे घर से दूर पड़ता था। हमारे शहर में तब बसें शहर के अन्दर के लिए नहीं चलती थीं। दूसरी किस सवारी पर बीस-बाइस वर्ष का लड़का जाता। पैदल आते-जाते पस्त हो जाता था। मां ने टोका भी था-‘‘एक ओर से रिक्शा कर लिया कर।’’

‘‘रिक्शा पर चलना मुझे अच्छा नहीं लगता। साइकिल ही ले दो।’’ दरअसल एकाध दिन वह रिक्शे से गया भी था। उसके कॉलेज के साथियों ने उल्लू बनाया था।
‘‘आ गये पालकी वाले। कहार को छुट्टी दे दी ?’’
एक तो उसे भी यह दूसरे के सिर पर लदकर चलना पसन्द न था, उस पर इस तरह की बात से तो वह और कट कर रह जाता था। कसम खा ली थी वह मर जायेगा, लेकिन रिक्शे पर बैठकर कॉलेज न जाएगा।

फिर वह कभी रिक्शे पर कॉलेज न गया। साइकिल ही खरीद ली गई। बड़ा अच्छा हुआ कि साइकिल खरीद ली गई थी। यह भी अच्छा हुआ कि नया सोफा आने से रह गया। साइकिल से झूलता हुआ बिल्ला अभी दुल्हन के हाथ में बँधे आम्रपत्र की तरह हरा ही था कि उसे ट्यूशन की तलाश में दौड़ना पड़ा। दिनभर कॉलेज, शाम में ट्यूशन, रात में अपनी पढ़ाई और सुबह से दावा-दारू का जुगाड़।

हमारे भाई ने खूब सम्हाला था। दूसरे लोग देखकर आह भर उठते थे। लेकिन उसके मुँह पर शिकन भी न थी। उसने नियति को जिस खामोशी से स्वीकार कर लिया था कि दुर्भाग्य भी सहम कर सोच में पड़ गया होगा। लेकिन दुर्भाग्य हमारे घर में आकर ठहर गया था। लू में झुलसे पत्ते की तरह हम सब कुम्हला गए थे। वह रोग का आकस्मिक आक्रमण हमारे पिता को कुल अड़तालिस वर्ष की अवस्था में ही हमसे छीन ले गया। डाक्टरों ने थ्रात्बासिस बताया था। बीमारी क्या थी, इस पर बहस करना बेकार है। यह बात भी कोई अर्थ नहीं रखती कि पहले से बीमारी का पता था या नहीं। लम्बे उपचार के बाद भी हम उन्हें खड़ा नहीं कर पाए।

यही एक त्रासक सत्य हमारे बीच यम की तरह आ खड़ा हुआ था।
शोक जर्जर माँ के विरुद्ध लोग बोलने लगे थे-
‘‘अरे आदमी की आमदनी कम हो तो उसके अन्दर ही पांव फैलाना जाहिए।’’
‘‘थोड़ी आमदनी और दिमाग आसमान पर। अपना घर होना चाहिए। बेटे को पढ़ाएंगे खर्चीले स्कूल में। बेटी को ब्याहेंगे किसी धन्नासेठ के इकलौते बेटे से। हद है भाई !’’
‘‘वह भी तो बिना आगा-पीछा सोचे जो यह कहती थी, करता जाता था।’’
‘‘करता नहीं तो उपाय क्या था। चैन से रहने देती थी !’’

लेकिन यह बात सच नहीं थी। अम्मा के कारण पापा को कभी कोई कष्ट नहीं हुआ था। उन दोनों के बीच बड़ी सहज प्रीति थी। उसी का अधिकार-बल होगा कि वह अपनी गृहस्थी के कील-कांटे सुदृढ़ बनाने में उन्हें महत्वाकांक्षा भरे सुझाव दिया करती थी। अम्मा की कोई व्यक्तिगत मांग हो, ऐसा हमें याद नहीं। वह सब कुछ पापा के परिप्रेक्ष्य में ही सोचती थी।

‘‘उनके कमरे में पूरी हवा आनी चाहिए। वे तो गर्मियों में भी बाहर सोना पसन्द नहीं करते थे।’’
पापा का कमरा सबसे हवादार, सबसे सुरक्षित था। मां खुद तो हम दोनों बहनों के साथ बड़े पलंग पर सोती थी। पापा नेवाड़ की नई खाट पर सोते थे। उस दिन भी और दिनों की तरह ही खा-पीकर सोये थे। उनकी पसंद की सिवई और बैगन के पकौड़े माँ ने बनाए थे। चपातियाँ मेरी बड़ी बहन ने सेंकी थीं, जिनमें से अम्मा ने, सबसे अच्छी सिंकी चुनकर पापा को खिलाई थीं। लोग चाहे जो कहें, हम जानते हैं- अम्मा के कारण पापा को कभी कोई कष्ट नहीं हुआ। भले ही वे सीधी-साधी तबीयत के रहे हों। पर, जीवन-स्तर को ऊंचा उठाने वाली हमारी माँ की योजनाएं उन्हें कभी बुरी नहीं लगती थीं।
हम कभी किसी ऐसी चीज की माँग करते जो घर के रूटीन-खर्चे से अलग होती थी। तो अम्मा तब तक टालती जब तक पापा की सहमति नहीं पा जाती थी। हम कहा करते थे-‘‘तुम जो चाहती हो, वही करती हो तब यह पूछना-पाछना क्या है ! सब टालने के बहाने हैं।’’ हम सभी भाई-बहन अम्मा पर अपना छद्म रोष दिखाते थे।

भाई तो कहता था- ‘‘अरे अम्मा से तो परसन भी माँगो तो कहेगी कि आने दो पापा को पूछ कर दूँगी।’’
इस पर हम सब हँसते थे। घर की एकसूत्रता ने हमें इतना निश्चिंत बना रखा था कि हमने किसी आसन्न संकट की कल्पना ही नहीं की। लेकिन बर्बादी सूचना देकर थोड़े ही आती है। हम सबके सब अपनी अपनी छोटी-बड़ी माँगों में आबद्ध शिकायतों और शाबाशियों की लहरों पर तैर रहे थे कि अचानक एक भीषण भंवर हमारी गति भंग कर गया। हम सब अपनी राह से कटकर उस गर्त में समाने को विवश हो गए।

शान्ति



सौन्दर्य विपत्तियों की परवाह नहीं करता। और युवावस्था में कौन सुन्दर नहीं लगता ! उस पर, मैं तो जन्म से मोम की पुतली कही जाती रही हूँ। पिताजी के तीखे नक्श और माँ का चम्पई रंग भगवान ने चुनकर अंग-सौष्ठव दिए हैं। मेरे कॉलेज में जब भी नाटक हुआ है मुझे उर्वशी और मेनका की ही भूमिका मिली। एक बार दुर्गा प्रतिमा के रूप में मुझे मंच पर बैठाया गया था तो दर्शकों में बाजी लग गई। मुझे कुम्हार के हाथों गढ़ी मूर्ति कहने वाले लोग मेरी पलकों के संचालन में विद्युत व्यवस्था का योग मानते थे। मेरी ठहरी हुई मुस्कराहट में उभरे मातृभाव से अभीभूत होकर लोगों ने हाथ जोड़ लिए थे।

ऐसी सुन्दरी कन्या के पिता को वर ढूँढ़ना नहीं चुनना पड़ेगा। प्रत्याशियों की कतार लग जायेगी। कुछ लोग ईर्ष्या, तो कुछ प्रशंसा से भरकर कहते थे।
लेकिन कहाँ ? कहीं से ऐसी कोई बात नहीं उठती। पितृहीन कन्या का पाणिग्रहण करने के पहले लोग अनेक बातें विचारते हैं। जिस परिवार के माथे पर कोई नहीं, वहां जमाई का सत्कार कौन करेगा ! साले किस बहनाई के होते हैं। ससुर की तरह भला कोई होता है जो अपनी हृदय-मणि सौंपकर दासानुदास बन जाए। ऐसे बिन-मोल गुलाम के न रहने पर ससुराल क्या ? विपत्ति की मारी सास तो अक्सर ही दामाद के माथे पर बोझ बन जाती है।– लोग भड़कने लगे।

पिता को गए दो वर्ष बीत गए। अम्मा ने पथराई आंखों से मामाजी की ओर देखा था। सगे भाई से मदद की भीख माँगकर उन्होंने मेरा विवाह तय किया। आसानी से नहीं, बड़ी कठिनाई से। मामाजी के लिए भारी धर्मसंकट की स्थिति थी। उन्हें बहन की बेटी अपनी बेटी से कम प्यारी हो, ऐसी बात न थी। वे ईमानदारी से वर तलाश रहे थे। लेकिन खुद निर्णय लेने में हिचकिचा जाते थे। अपने पति के साथ समस्वरता में बँधी मेरी मां की जो सुरुचि सराही जाती थी, उसी पर लोग टीक-टिप्पणी करने लगे।

‘‘यह नहीं कि जो मिल रहा हो उससे बेटी के हाथ पीले कर दें। इतना मीन-मेख करेंगी तो भला ब्याह सकेंगी बेटी को !’’
‘‘इसकी पुरानी आदत रही है। यह नहीं, वह नहीं-शुरू से यही हाल रहा है।’’
‘‘इसी परेशानी से तो बेचारा हृदय-रोग का मरीज हो गया।’’
इस आरोप का विद्युत आघात हम सबको लगता था। पिताजी को खो देने की सबसे बड़ी व्यक्तिगत हानि मां को ही हुई थी। और उसे ही इन अनर्गल आरोपों की भी यंत्रणा सहनी पड़ती थी।
‘‘बेचारे को इतना बड़ा रोग घर में किसी को पता नहीं !’’

‘‘किसी बच्चे को छींक भी हो जाए तो दौड़ा देती थी। उसे दवा और डाक्टर के पीछे। लेकिन उस बेचारे को यह मारक बीमारी थी। कभी सुना तो नहीं कि उसका तबियत खराब है, आराम में है।’’
हमारी मां ने अपने होंठ सीकर ये विषैले आरोप सुने और सहे थे। कहते हैं-जो सहे सो लहे। अब, खुद, मामीजी अपनी बेटी को कहती थीं।
‘‘जैसी तपस्या शान्ति ने की थी वैसी ही कर।’’
तपस्या ! मैं और तपस्या ! किसी तरह बी० ए० पास कर गई हूँ। वह तो घर का संस्कार था। अन्यथा हाथ में किताब आने पर तो मुझे नींद के झोकें आते थे। घरेलू काम-काज में भी मेरी रुचि कहां थी ? घर की बड़ी बेटी होने का लाभ ही उठाती रही हूं। छोटे भाई को दुलराने के सिवा घर के दूसरे कामों में अम्मा का हाथ मैं कम ही बंटाया करती थी।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai